विज्ञापनों की अतार्किक एवं “ उत्पाद प्रधान स्वार्थी सोच ” के कुछ नमूने देखने पर ये साफ़ हो जाता है की भारतीय एड एजेंसियां सोच एवं सांस्कृतिक मूल्यों के गिरावट के दौर से गुजर रही है. उनका उद्देश्य भारतीय सभ्यता संस्कृति को ताक पर रखते हुए अपने उत्पाद की महत्ता एवं अनिवार्यता मात्र सिद्ध करना रह गया है.
एक चिप्स से विज्ञापन में एक सैनिक को चिप्स एक पैकेट के लिए जान देता हुए दिखाया गया है. क्या एक सैनिक जंग के मैदान में इतनी बड़ी बेवकूफी कर सकता है?
एक और दूसरे विज्ञापन में एक रेल यात्री को अपने सह यात्रियों से भोपाल का पता पूछते हुए दिखाया गया है. जिसे उसका कोई भी सह यात्री बताने को तैयार नहीं है. हद तो तब हो जाती है जब टीटीई तक तवज्जो नहीं देता.
क्या भारतीय यात्री इतने असहयोगात्मक रवैया रखते हैं?
इसके ठीक उलट भारतीय यात्री अपने सहयात्री से ढेर सारी बातें (राजनीती, मंहगाई, बच्चो की शिक्षा आदि प्रिय विषयों) करता है, एवं छोटे मोटे सहयोग अवश्य करता है.
विज्ञापन एजेंसियां अपने उत्पाद की महत्ता को सर्वोपरि रखने के ललक में, भारत और भारतीय संस्कृति का अपमान करने में कोई गुरेज नहीं कर रही है.
इसे मानसिक दिवालियापन नहीं तो और क्या कहा जाय?