26 February 2011

धार्मिक उदासीनता


भारत एक धार्मिक देश है, हमारे यहाँ  करीब ८४ करोड़ देवी देवता है. कुछ विशेष क्षेत्र / विषय के लिए कुछ विशेष देवी देवता है. प्रत्येक व्यक्ति किसी किसी हद तक धार्मिक होता है औरजितना होता है उससे कहीं अधिक होने का दिखावा तक करता है. हमारे देश में मंदिर बनवाना स्वर्ग ( ? ) जाने की निश्चित सीढ़ी मानी जाती है . ऐसा करने वालों की पीढ़िया तर जाती है. तो भला ऐसा पावन कर्त्तव्य हर धार्मिक व्यक्ति क्यों नहीं करना चाहेगा . फलस्वरूप आये दिन स्वर्ग प्राप्ति की अदम्य कामना के कारण मंदिर बनवाये जाते हैं. उनमे से कुछ  विधिवत बनाये गए मंदिर होते है,और कुछ यु ही  सड़क के किनारे या फिर किसी पेड़ के निचे  देवी - देवताओं की मूर्तियाँ रख ( मैं उसे स्थापित करना नहीं कहूँगा , क्योंकि हमारे देश में तो कुछ चंद दिनों के लिए पूजे जाने वाले मूर्तियों में भी विधिवत प्राण - प्रतिष्ठा की जाती है ) दी जाती है,  कुछ दिन तो मानो उत्सव सा माहौल रहता है. फिर धीरे धीरे दिखावटी धार्मिक जोश ठंढा पड़ने लगता है. और फिर चंद दिनों बाद उनकी सुधि लेने वाला कोई नहीं रहता. इन उपेक्षित देवो पर चढ़ाये गए घी, तेल, प्रसाद  आदि का  कुत्तों द्वारा चाटना, उनपर मूत्र त्याग कर देना मूर्तियों का घोर अनादर और हमारी ( धर्म  के नाम पर मरने मारने को हमेश उतारू रहने वाले धार्मिक लोग ) हद्द दर्जे की धार्मिक उदासीनता का द्योतक है.
ये  एक तरह का जमीन ( सरकारी, या किसी कमजोर का) हथियाने  या फिर विवादित जायदाद को धार्मिक मुलम्मा चढ़ा कर टरकाने का धार्मिक हथकंडा होता है. दाल गल गयी तो धरम हो गया ,नहीं गली तो  प्रशासन द्वारा अतिक्रमण हटाने (?) के नाम पर मंदिर तोड़ने से जो सांप्रदायिक उन्न्माद फैलेगा उससे भी पब्लिसिटी तो मिलेगी ही. यानि दोहरा लाभ. हो सकता है ऐसी सोच रखने वाले लोग धर्म विशेष के ध्वजवाहक / पहरुवे के रूप में खुद को स्थापित करने में भी सफल हो जाये. और अंततोगत्वा अपने परम लक्ष्य "सत्ता" की चिरप्रतीक्षित कुर्सी को भी पा लें. क्योंकि आज कल सत्ता या तो धर्म द्वारा या फिर धनबल , बाहुबल द्वारा ही संचालित हो रही है. सेवा द्वारा सत्ता के शिखर पर पहुँचाना तो पागलों का काम है.
कई जगहों पर मूर्तियाँ स्थापित कर देना और बाद में उनको उनके हाल पर छोड़ देना आम बात हो गयी है. प्रकारान्तर में इनका सदुपयोग (?) कुछ असामाजिक तत्वों द्वारा अपनी नशे की लत पूरी करने तथा कुछ नकारा किस्म के तथाकथित साधुओं / पुजारियों  द्वारा मुफ्त की रोटियां तोड़ने  और भोली भली जनता को धर्म के नाम पर लुटने के जरिया रूप में किया जाने लगता  है. क्या इसे आप भक्ति  कहेंगे ? क्या इस तरह के कृत्य को धरम की संज्ञा दी जा सकती है?
दरअसल हम भेड़ों की तरह आँख मूँद किसी भी चीज़ को मानने के लती  हो गए हैं। इसी कारण कोई भी ऐरा गैरा हमारी धार्मिक भावनाओ का दोहन कर हमें अपनी लिप्सा पूर्ति का माध्यम बनाने में सफल हो जाता है.
धर्म एक भावना है, एक जीवन शैली है. उसका इस तरह चंद लोगों द्वारा अपने निकृष्ट हितो की पूर्ति का माध्यम नहीं बनने देना चाहिए. जिस देवी देवता पर हम इतनी श्रधा , इतना आदर रखते है उन्हें कैसे इस तरह उपेक्षित छोड़ दे?

25 February 2011

एक युग का अंत


भारतीय कॉमिक्स के सृजनकर्ता, अमर चित्र कथा ( २० से अधिक भारतीय भाषाओं में अनुदित लगभग तीस लाख प्रतियों का वार्षिक प्रसार )  के संस्थापक अनंत पई ( जन्म  १७ सितम्बर १९२९, करकाला ,उडुपी ,कर्नाटक,सुशीला और वेंकट राया पई के पुत्र ) का २४ फरवरी को मुंबई में निधन होना एक युग का अंत होना है."अंकल पईके नाम से मशहूर पई जी वर्ष के आयु में अपने माता पिता के स्नेह से बंचित हो गए.१२ साल की उम्र में बम्बई ( आज की मुंबई) में आकर उन्होंने ओरिएंटल स्कूल, माहिम से अध्यन  शुरू किया. प्रकारांत में उन्होंने मुंबई विश्वविद्यालय से दोहरी उपाधि (रसायन भौतिकी और रसायन तकनीक) अर्जित की.
इण्डिया बुक हाउस के प्रकाशकों के साथ १९६७ में शुरू की गई कॉमिक्स श्रृंखला अमर चित्र कथा के श्री गणेश के साथ उन्होंने भारतीय मूल्यों, आदर्शो, गाथाओ के माध्यम से
बच्चों को परंपरागत भारतीय लोक कथाओं , पौराणिक कहानियों और ऐतिहासिक पात्रों की जीवनियाँ बताई . १९८० में टिंकल नामक बच्चों के लिए पत्रिका का भी उन्होंने संपादन किया. उनकी कृतियों में बीरबल दि क्लैवर, रानी ऑफ झाँसी, गुरू नानक, माँ दुर्गा की कहानियाँ, लव-कुश, ह्वेन सांग , सुभाषचन्द्र बोस, नल-दमयन्ती, शिव पार्वती,तानसेन,एलीफेंन्टा आदि उल्लेखनीय है.
आज जब की हमारे पास जीवन के भाग दौड़ के कारण अपने बच्चों के देने के लिए कुछ भावनात्मक पल  तक  नहीं बचे है, ऐसे परिप्रेक्ष्य में इस तरह की नैतिकता से ओतप्रोत बाल साहित्य की प्रासंगिकता अपने आप सिद्ध हो जाती है. अब इस तरह के निर्माणकारी बाल साहित्य का सृजन आज के भौतिकतावादी प्रकाशकों के लिए फायदे का धंधा नहीं है. पीढ़ियों का सर्वनाश हो इससे उनका कोई सरोकार नहींसविता भाभी के दौर में कौन नैतिक मूल्यों ,आदर्शों,और परम्पराओं का रोना रोये. ये फायदे वाले धंधे नहीं हैं.
पर ऐसी सोच के कारण ही हम आज के नैतिक मूल्य विहीन युवा वर्ग के आयातित विचारों , मूल्यों, और जीवन शैली का दर्शन कर रहें है. आज बाल साहित्य के नाम पर जो परोसा जा रहा है ,उससे आप किस आदर्श की अपेक्षा कर सकते है?
अंत में : आज कल का सर्वाधिक प्रचलित और लोकप्रिय जुमला " सब चलता है" वाली मानसिकता आने वाले दिनों में भी ऐसी ही रहेगी, आखिर सब चलता है. तो चलते रहिये  आप क्यों रुके हुए हैं.



21 February 2011

क्या इस पर भी गर्व करेंगे ?


पिछले  ब्लॉग में अपने  देश के बारे में गौरवान्वित करने  वाले  तथ्यों को जानकर मन बहुत गर्वित हुआ. , लेकिन ठीक इसके उलट  तस्वीर का एक दूसरा पहलु भी है. इस  पहलु को देखने के बाद लगता है  की हमारी  जिम्मेदारी और जवावदेही और बढ़ जाती है. तस्वीर के इस दुसरे पहलु से हमलोग  मुह नहीं  मोड़ सकते.. कम सें कम बागी सोच रखने वाले हमारे बुद्धिजीवियों से तो मेरी ऐसी ही उम्मीद है. पेश है चंद बानगियाँ :
बेचारे   निरीह जानवरों का चारा आदमी खा जाता  है.
पूरी हिंदी  और थोडा सा अंग्रेजी जानने वाले  लोग अंग्रेजी के अपना परिचय  देते है,
एक  महिला द्वारा शासित राज्य में शासन के  पहरुवो द्वारा द्वारा ही महिला की  इज्जत लुट ली जाती है,
मुर्दा दफ्नावे के लिए  VIP ( समाज के रुतबा वाला लोग ) लोगो के लिए  VIP कब्रगाहें है,
देवता दूध पिने लगते है, और समुन्दर का  पानी मीठा  हो जाता है,
देव दर्शन के लिए VIP वाला लाइन रहता है ,
देवता से  मनोकामना (?) पूरी करने  की  खातिर  के चढावा का  लालच  दिया जाता है,
घर में कुत्ते पाले जा रहे  है और माँ - बाप को Old age home (वृधाश्रम ) में भेज दिया जा रहा है,
लड़की  पैदा होने  पर मात्र औरत को दोष दिया जाता है  ,
हरे  (सम्पन्नता के सूचक ) लोगों को लाल कार्ड ( गरीबी के सूचक ) बनाया जाता है,
जनता के सेवक (?) जनता के पैसा से जहाज से घूमते है, AC (शीत - ताप नियंत्रित ) में रहते है, , बाकि जनता का क्या होता है, क्या ये भी बताना पड़ेगा?
एक  देश में  ही कई  देश हो गया है,, एक राज्य के लोग दूसरा राज्य में लतियाये जा रहे हैं.
डॉक्टर गुर्दा बेचता है  , नेता देश बेचता हैं.
अपने  ही देश में , अपने   ही देश के राष्ट्रीय ध्वज फहराने  पर रोक लगाया जाता  है ,
कुदरत से छेड़छाड़ करने  के कारण  कहीं डूबता है तो कहीं सूखता है,
जितना बड़ा  अपराधी , भविष्य में उतना बड़ा समाज सेवक (आज कल का काफी प्रचलित शब्द ,( नेता लिख कर मै इस  शब्द का अनादर नहीं करना चाहता ) बनने  की गारंटी है,
गाँव
बूढों से अटा पड़ा है  शहर जवानो से कोंचा जा रहा है,
साधू लोग 'स्वाद ले रहे हैं  ( तन के , धन के , मन के ) ,भक्तों को  इन्द्रिय निग्रह का  उपदेश दिया जा रहा है,
अब और कितना सुनेगे ? इस तरह की विडम्बनाये  लिखने बैठा जाये तो संभवतः एक महाकाव्य का सृजन हो जाये,
अंत में :
blood group (
रक्त समूह ) मिलाने की जगह कुंडली मिलाने  पर ज्यादा जोर दिया जाता है,
धोति वाला कम रहा है, टोपी वाला खा रहा है,
जय हिंद..