29 March 2011

कैसे बचोगी तुम?

आखिर कब तक
और ,
कैसे बचोगी तुम?
हमने
पूरा जाल बुन रखा है,
पहले तुम्हे गर्भ में,
फिर,
घर में,
पंचायत  में,
फिर भी
बच गई तो
ससुराल में
मार डालेंगे.

हम तुम्हे आदर देंगे
"माँ" के रूप में
दुलार करेंगे,
"बेटी" के रूप में,
प्यार करेंगे,
"पत्नी "के रूप में,

फिर भी बच गयी तो.....
सरेआम
छीटाकशी
इज्जत को तारतार करेंगे,
"भोग्या" का तमगा
सेक्स सिम्बल  बना
लोगों में परोस देंगे,

आखिर कब तक
और ,
कैसे बचोगी तुम?

अब  तुम
"श्रद्धा" की पात्र नहीं हो,
संपत्ति हो,
व्यक्ति नहीं,
बला हो,व्यापार हो,  .
मुक्ति मिली तो,
बला टली,
बची तो..
व्यापार हुआ.....










28 March 2011

टुटा मन

घर,
अलसाया शरीर,
गाड़ी,
अस्पताल.
डॉक्टर से बातें,
थोड़ा अंतराल.........
उलझा मन
कागज का टुकड़ा,
थोड़ी  सी चिंता,
विचार -विमर्श,
थोड़ा अंतराल.......
डॉक्टर से बातें,
गाड़ी,
टुटा मन
घर वापसी.

15 March 2011

विडम्बना

तेज धुप था ,
शहर गाड़ियों के रेलम पेल से अफना रहा था.
एक  सिगनल पर,

गोद  में एक भूखा बच्चा लिए,
पपड़ी पड़े होठ ,उलझे बाल, कपडे जहाँ तहां से फटे
दिल में अपने बच्चे के लिए  ,
अथाह दुलार लिए ,
वो ..
एक गाड़ी वाले  के खिड़की में,

हाथ डाल  के कुछ खाने केलिए ,
पैसे मांग रही थी,
उसने  ...
खिड़की के  शीशे के बटन दबा दिए,
पेट से भूख  तो  ना निकली 
लेकिन....
एक मर्मान्तक चीत्कार निकली ,
वो ..
अपना भूखे बच्चे को चुप कराती चली गई
और वो
अपना कुत्ते को चूमता चला गया .


 

06 March 2011

वृद्ध - आश्रम : सामाजिक स्खलन


वृद्ध - आश्रम   :  सामाजिक स्खलन
अगर अब कोई ये कहे की भारत में रिश्ते नातों ,परिवार, अभिभावकों, माता-पिता जैसी सामाजिक जिम्मेदारियों का निर्वाह किया जाता है ,तो मैं सिरे से इस  विचार को ख़ारिज करता हूँ. आज भी लोग अगर ऐसा सोचते हैं तो ये महज खुद को ठगने जैसा है. जिस माँ-बाप ने अपने रातों की नीद ,दिन का चैन, शीत- ताप, सबकी बलि देकर अपने छोटे से बिरवे (बच्चे) को सींच सींच कर एक वृक्ष  का रूप दिया , उसी माँ - बाप को उम्र के आखरी पड़ाव में, उस स्व-सिंचित वृक्ष के छाया से जबरन वंचित किया जा रहा है. इस पर आप का क्या कहना है?
कहाँ गए वो  आदर्श, वो भावनाएं?
आज के आपाधापी के दौर में हमारे पास अपने अहम् की तुष्टि के लिए (सामाजिक, आर्थिक) तो समय ही समय है. लेकिन हम अपने अपने रिश्तों को भावनाओ की गर्माहट देने से चूक  जा रहें है, या यूँ कहे की कन्नी काट जाते है तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी. हमारे देश में भावनाओं के गिरते स्तर का प्रमाण है ये वृद्ध - आश्रम.
अगर दुर्भाग्य से कभी आप  किसी वृधाश्रम के पास से गुजरे, तो शुन्य में ताकती उन बूढी आँखों की असीम पीड़ा का  सामना (यदि आप संवेदनशील व्यक्ति  है तब ) करना आपके व्यक्तित्व की परीक्षा की दुरूह घड़ी हो सकती है. उनकी पीड़ा पर्व -त्योहारों के समय दुगुनी हो जाती है.
ऐसा माना जाता है की बुढ़ापे में व्यक्ति अपने  मानसिक और शारीरिक सुख की प्राप्ति, स्मृतियों के माध्यम से करता है. वो  उन सारे कार्यो, व्यवहारों को बार बार रिप्ले करके मानसिक सुख की प्राप्ति करता है,जो उसने अपने युवावस्था में किया होता है.ठीक इसी दौर में उसे अपने बच्चों भी याद आते होंगे ,वो बच्चे जिन्होंने उन्हें  अनाथ बना डाला है. जरा सोचिये! उस वक्त क्या बीतती होगी उन पर. क्या इसी दिन के लिए उन्होंने इतना कुछ किया था
ये वृधाश्रम  दो तरह के होते है, निः शुल्क और शुल्क वाले. ये मध्य वर्ग को लगी हुई नयी बीमारी है. और वो भी तथाकथित शिक्षित (Advance ) लोगो की. क्यों की गरीब कभी भी अपने माँ बाप को अपने से अलग नहीं भेजता, रुखा सुखा जो मिले सब मिल बाँट कर खाते हैं उन्हें सामाजिक रुतबे, दिखावे  और भावनात्मक कृत्रिमता जैसी अनर्गल बातों से कुछ लेना देना नहीं रहता है.
दरअसल वृधाश्रम का बढ़ता चलन हमारी जिम्मेदारियों से जी चुराने , आत्मकेंद्रित होने, भौतिकतावादी होने(जिसमे सिर्फ 'स्व'पर जोर होता है) और सामाजिक पलायनवाद  का प्रतीक है, वैसे भी आज का दौर लिव इन रिलेशनशिप का दौर है जिसमे विवाह और बच्चों की जिम्मेदारी से भागने/अस्वीकार करने की पूरी छुट होती है, जरा सोचिये जो पीढ़ी विवाह जैसे सामाजिक बंधन से मुक्ति चाहती हो वो बूढ़े माँ -बाप की जिम्मेदारी कैसे उठा सकती है? कम पढ़े लिखे लोग आज फिर भी अपनी मान्यताओं, सामाजिक जिम्मेदारियों से जुड़े हुए है, ये सामाजिक रोग तथाकथित आधुनिकता का ढोल पीटने वाले शहरी लोग ही पाल रहे है. आज का भारत युवाओं का है. तब क्या होगा जब आज की पीढ़ी बूढी होगी. तब तो शायद भारत में चारो और वृधाश्रम ही होंगे. मैं सुना करता था की हर सामजिक समस्या के मूल में अशिक्षा है, लेकिन आपको ये जानकर आश्चर्य होगा की देश के सबसे अधिक साक्षरता वाले राज्य (केरल) में सबसे अधिक १२८ वृधाश्रम है( www.sctimst.ac.in/amchss/Depressive_Symptoms.pdf) -. बात शिक्षित होने से नहीं  बल्कि जिम्मेदारी से भागने से जुडी है. हमारे बुजुर्ग समाज की संपत्ति है, हम उनके अनुभव, ज्ञान और  सीख का लाभ अपने समाज को दे सकते है. यदि हम उन्हें बोझ समझ कर उनसे किनारा कर लेंगे तब हमें नैतिक मूल्यों, जीवन शैली, और सांस्कृतिक ज्ञान का बोध कौन कराएगा? ये कितने दुर्भाग्य की बात है की जिस वक्त हमारे बुजुर्गों को हमारे शारीरिक और भावनात्मक सहयोग की आवश्यकता होती है एन उसी वक्त हम उनसे मुह मोड़ लेते हैं.
वृधाश्रम उन गरीबों के लिए  उचित है जिनके मानसिक और शारीरिक स्वस्थ्य के लिए खर्च उठा  पाना मुश्किल होताहै.

01 March 2011

नेट का प्रयोग : एक सामाजिक जिम्मेदारी

 आज तकनीक के  इतने उन्नत स्थिति में पहुचने के चलते सारा विश्व एक गाँव ( ग्लोबल विलेज ) के रूप में परिवर्तित हो गया है. असंख्य लोग नेट को  अपने  सामाजिक दायरे को बढ़ाने , भावों ,विचारों को संप्रेषित करने  का सुगम जरिया बना रहें है , नेट पर कारोबार, लिखाई - पढाई, दोस्ती, शादी - व्याह और  तलाक तक हो रहा है. कहने का तात्पर्य यह की हर व्यक्ति अपने मतलब और आवश्यकता के अनुरूप नेट का प्रयोग कर रहा है. नेट के  प्रयोग के अपने अपने मकसद और स्वतंत्रताएं  है,  नेट आज मानव  जीवन के समस्त पहलुओं से अभिन्न रूप से जुड़ चूका है. अब हम इसकी अपरिहार्यता को नजरंदाज नहीं कर सकते. बल्कि इसे आत्मसात करने  का समय आ गया है.
लेकिन इसी स्वतंत्रता और मकसद  के बीच  एक  बड़ी बारीक़ सी लकीर  सामाजिक जिम्मेदारीकी भी है.. सामाजिक नेट  के उपयोगकर्ता की ये  नैतिक जिम्मेदारी बनती है  की वह अन्य उपयोगकर्ताओं  के सवालों,समस्याओं का  समाधान  खोजे और उनका समाधान करने की  दिशा में सार्थक  प्रयास करे.
बेबसाइट निर्माण  कोई मुफ्त का काम नही है. तो इस दृष्टि से इसका उपयोग सामाजिक चेतना, अपने सभ्यता - संस्कृति, भाषा, बोली , माटी, तीज त्यौहार, कला ,गीत संगीत आदि के आलावा मानव जीवन से जुड़ी समस्त पहलुओं  के बारे ने जानकारियां आदान-प्रदान कर की जानी चाहिए.  इस सशक्त माध्यम से लोगों को समाज के प्रति अधिकाधिक रूप से जबाबदेह और जागरूक बनाने की पहल करनी चाहिए.
इन दिनों नेट भावों ,विचारों, सूचनाओं , अनुभवों आदि  के बारे में विचार व्यक्त करने का एक सुलभ और सशक्त माध्यम बनता  जा रहा है. हमें सदैव ये कोशिश करनी चाहिए की सदैव उपयोगी और सामयिक सूचनाओं का आदान-प्रदान करें, जो जनहित में हों.
 नेट को  मात्र मनोरंजन और मनबहलाव का जरिया मत बनायें. इसकी शक्ति का उपयोग  सार्थक, प्रासंगिक, सम सामयिक , सदुपयोगी और रचनात्मक सामग्री प्रदान करने के रूप में करें. जिससे दुसरे भी लाभान्वित हो .अंततः हमें इतनी सामाजिक जिम्मेदारी तो निभानी ही चाहिए .