23 December 2011

राजनैतिक आफर


देश में अभी त्योहारों की धूम है. बाजारों में ग्राहकों को लुभाने के लिए लगभग सभी उपभोक्ता वस्तुओं पर आकर्षक आफर दिए जा रहें है ताकि बेहतर व्यापार हो सके. ग्राहकों को दी जाने वाली आफरों में प्रतिशत को लेकर दुकानदारों के बीच काफी प्रतियोगिता चल रही है. हरेक ब्रांड ग्राहकों को लुभाने के लिए अधिकाधिक छूट देकर उन्हें अपनी ओर खिचने की व्यावसायिक कोशिश में लगा हुआ है.
कुछ इसी तरह का बाजार चुनावी त्योहारों में राजनैतिक दलों ने भी सजा रखा है. पर यहाँ एक मूल फर्क है : राजनैतिक दलों (तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दल ) ने ये आफर मात्र मुसलमानों के लिए रखा है. तथाकथित धर्मनिरपेक्ष राजनैतिक दलों के नजर में भारत में मात्र मुसलमान ही अल्पसंख्यक है. जैन, बुद्ध, सिक्ख और इसाईं इस दायरे में नहीं आते, क्योंकि वो वोट बैंक की अहर्ताओं को पूरा नहीं करते.
चुनावी पिटारे से तरह तरह के सनातन न पूरा किये जाने वाले वादे और सुविधाओं के श्रोत फुट पड़े है, जो निरंतर प्रवाहमान हैं. तिस पर आलम ये है की भारतीय मुसलमान भी इस सनातनी वादों और सुविधाओं के श्रोत से अपनी प्रगति की घूंट भर कर आह्लादित हो रहा है. दोनों एक दूसरे को छल रहे हैं.
मुसलमानों ने अपने विकास, उन्नति और सबलता का सपना तथाकथित धर्मनिरपेक्ष राजनैतिक दलों के द्वारा चुनावी भोज में फेके गए टुकडो में ही देख रहा है. आखिर कब तक मुसलमान इन वादों, आश्वासनों से खुद को छलता रहेगा? वो क्यों नहीं समझता की तथाकथित धर्मनिरपेक्ष राजनैतिक दलों को चुनावी बैतरनी पार करने के समय ही मुसलमानों की याद क्यों सताने लगती है.? वो क्यों छूट, सुविधाओं, आरक्षण के न पूरा किये जाने वाले मौसमी वादों में अपनी प्रगति का राह देखता है?
आजादी के इतने सालों बाद , इतने वादों के बाद देश के मुसलमान के माली हालत में कोई विशेष फर्क दिखाई तो नहीं पड़ता. जबकि प्रत्येक चुनाव में एक से एक बढ़कर दावे किये जाते रहे है.  एक आम मुसलमान आज भी वही खड़ा है जहाँ वो देश आजाद होने के समय था. तमाम सुविधाओं का लाभ सबल और सशक्त मुसलमान ही उठा पाते है, फिर ये सुविधाएँ कैसे जनहितकारी कही जा सकती है? दरअसल यह एक राजनैतिक छलावा मात्र है.
अपने कौमी तरक्की और सबलता के लिए मुसलमानों को खुद सामने आना होगा. मजहबी तंगदिली से ऊपर उठकर सबसे पहले अपने आप को शिक्षित करना पड़ेगा. अपने अधिकारों के लिए खुद को सबल बनाना होगा. अपने लोगों को चुनकर उनसे अपनी मांगे पूरी कराने का दबाव बनाना होगा. वर्ना खुद को इन तथाकथित धर्मनिरपेक्ष राजनैतिक दलों के चुनावी टुकडो के हवाले कर देना होगा.
मुसलमानों के स्व – घोषित हितैषी नेताओ बसपा (जिन्होंने मुसलमानों के आरक्षण के लिए संविधान में संशोधन तक की राय दे डाली है), काँग्रेस ( जिसका सबसे बड़ा श्रेय तथाकथित तुष्टिकरण के नाम पर देश विभाजन और सर्वाधिक सत्तासीन होने के बावजूद जिसके दौर में मुसलमानों के तरक्की का नतीजा सिफर रहा है ) जैसी पार्टियों से  सावधान रहने के जरूरत है. आखिर भारतीय मुसलमान कब तक ऐसे भ्रम की स्थिति में पड़ा रहेगा ? कब तक राजनितिक खैरात में अपनी तरक्की का रास्ता ढूंढता रहेगा? किसी को तो आकार इस वादों के अमरबेल को नकार कर खुद के बल पर अपना मुकद्दर अपने हाथों से लिखना पड़ेगा.



  

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